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bhakt shree kushal das ji part 2 भगवान् की कृपा से यथासमय बाबा के एक कन्या हुई थी, वह विवाह योग्य हो गयी । बाबा की आर्थिक स्थिति खराब थी । पासमें धन नहीं था । विवाह कराना भी आवश्यक था । सबने कहा बाबा कर्ज लेलो तब अन्त मे लखमीचंद नामक एक बनिये से उन्होने दो सौ रुपये उधार लेकर कन्या का विवाह कर दिया । ऋण चुकाने की अन्तिम तिथि निकट आ गयी । बाबा के पास कौडी भी नहीं थी । वे बस दिन रात भगवान् के नाम में मस्त रहते थे ।  एक दिन बनिये का सिपाही बाबा के दरवाजे पर बार बार आका तकाजा करने लगा । बाबाने  उस से कहां – मै कल शामतक पैसे की व्यवस्था करता हूँ। आप निश्चिन्त रहिये । बाबा कभी किसीसे कुछ मांगते न थे परंतु अब दूसरा उपाय बचा न था । गाँव में किसीने भी ऋण देना स्वीकार नहीं किया । पडोस के एक दो गाँवों में जाकर बाबा ने पैसे लाने की कोशिश की परतुं ऋण वहुकाने लायक पैसे जमा नहीं हुए । दूसरे दिनतक पैसे नहीं लौटाथे जाते हैं तो बनिया लखमीचंद उनके घर को नीलाम कर देगा । बाबा ने सब हरि इच्छा मानकर घर वापस आ गये और भजन में लग गए । इधर भक्तवत्सल भगवान् को भक्त की इज्जत की चिन्ता हुई । आखिर ऋण को चुकाना ही था । क्या किया जाय ? भगवान् ने दूसरी लीला करने का निश्चय किया । भगवान ने मुनीम का वेष धारण किया । वे उसी वेष में लखमीचंद के घर गये । उन्होने सेठजी को पुकारकर कहा – ओ सेठजी! ये दो सौ रुपये गिन लीजिये । मेरे मालिक खुशाल बाबा ने भेजा है । भली भाँति गिनकर रसीद दे दीजिये । लखमी चंद ने रकम गिन ली ओर रसीद लिख दी । भगवान् रसीद लेकर अन्तर्धान हो गये और बाबा की पोथी में वह रसीद उन्होने रख दी । दूसरे दिन बाबा ने स्नान करके नित्य पाठ की गीता पोथी खोली । देखा तो उसमें रसीद रखी है । रसीद देखकर बाबा आश्चर्यचकीत हो गये और भगवान् को बार बार धन्यवाद देकर रोने लगे । फिर रोते रोते बाबा  कहने लगे की मेरे कारण भगवान् को कष्ट हुआ है । वह बनिया बड़ा पुण्यवान् है इसलिये तो भगवान ने उसे दर्शन दिये और मैं अभागा पापी हूँ , द्रव्य का इच्छुक हूँ इसीलिये भगवान् ने मुझे दर्शन नहीं दिये ।  उनके महान् परिताप और अत्यन्त उत्कट इच्छा के कारण भक्तवत्सल भगवान् ने द्वादशी के दिन खुशालबाबा के सम्मुख प्रकट होकर दर्शन दिये । उसी गाँव में लालचन्द नामक एक बनिया रहता था । उसने नित्य पूजा के लिये भगवान् श्रीराम, लक्ष्मण और भगवती सीता के सुन्दर सुन्दर विग्रह बनवाये ।  भगवान् श्री राम जी ने देखा की यहां के भक्त खुशलबाबा पांडुरंग के विग्रह की सेवा बड़े प्रेम से करते है ,मधुर कीर्तन सुनाते है हर प्रकार भगवान् की उचित सेवा करत


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Bhakt shree kushal das ji खान देशमें (वर्तमान गुजरात महाराष्ट्र सीमा ) फैजपुर नामका एक नगर है । वहाँ डैढ़ सौ साल पहले तुलसीराम भावसार नामक श्री कृष्ण पंढरीनाथ जी के एक भक्त रहते थे । इनकी धर्मपरायणा पत्नी का नाम नाजुकबाई था । इनकी जीविका का धन्धा था कपडे रँगना। दम्पती बड़े ही धर्मपरायण थे । जीविका मे जो कुछ भी मिलता, उसीमें आनन्द के साथ जीवन निर्वाह करते थे । उसीमे से दान धर्म भी किया करते थे । इन्हीं पवित्र माता पिता के यहाँ यथासमय श्री खुशाल बाबा का जन्म हुआ था । बचपन सेे ही इनकी चित्तवृत्ति भगवद्भक्ति की ओर झुकी हुई थी । भगवान् के लिए नृत्य और कीर्तन करके उन्हें रिझाते और उनकी लीलाओं को सुनकर बड़े प्रसन्न (खुश ) होते , खुश होकर हँसते और मौज में नाचते रहते । इसी से सबलोग इनको खुशाल बाबा कहते थे । यथाकाल पिता ने इनका विवाह भी करा दिया । इनकी साध्वी पत्नी का नाम मिवराबाई था। दक्षिण मे भारत का दूसरा वृंदावन श्री क्षेत्र पंढरपुर बहुत प्रसिद्ध है । वहाँ आषाढ और कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को बडा मेला लगता है । वैष्णव भक्त दोनो पूर्णिमाओं को यहाँ की यात्रा करते है । उन्हें वारकरी कहते है और यात्रा करने को कहते है वारी । ऐसो ही एक पूर्णिमा को श्री खुशलबाबा ‘वारी’ करने पंढरपुर आये । श्रद्धा भक्ति से भगवान् विट्ठलके दर्शन किये और मेला देखने गये । उन्होने देखा कि एक  दूकान में श्री विट्ठल का बडा ही सुंदर पाषाण विग्रह है । बाबा के चित्त मे श्री विट्ठलनाथ के उस पाषाण विग्रह के प्रति  अत्यंत आकर्षण हो गया । उन्होने सोचा पूजा अर्चा के लिये भगवान् का ऐसा ही विग्रह चाहिये । उन्होचे उसे  खरीदने का निश्चय किया और दूकानदार उस विग्रह का मूल्य पूछा ।  दूकानदार ने विग्रह के जितने पैसे बताये, उतने पैसे बाबा के पास नहीं थे । दूकानदार मूल्य कम करनेपर राजी  नहीं था । बाबा को बडा दुख हुआ । उन्होने सोचा अवश्य ही मैं पापी हूं। इसीलिये तो भगवान् मेरे घर आना नहीं चाहते । वे रो रोकर प्रार्थना करने लगे – हे नाथ ! आप तो पतितपावन हैं । पापियो को आप पवित्र करते हैं । बहुत से पापियो का आपने उद्धार किया हे , फिर मुझ पापीपर हे नाथ ! आप क्यो रूठ गये ? दया करो मेरे स्वामी ! मैं पतित आप पतितपावन की शरण हूँ। बाबा ने देखा एक गृहस्थ ने मुंहमांगा दाम देकर उस पाषाण विग्रह को खरीद लिया है । अब उस विग्रह के मिलने की कुछ आशा ही नहीं है । बाबा बहुत ही दुखा हो गये । उस विग्रह के अतिरिक्त उन्हे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था , उनका दिल तो उसी विग्रह की सुंदरता ने चूरा लिया था । उनके अन्तश्चक्षु के सामने बार बार वह


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bhakt shree sewadas ji श्री वृंदावन में एक विरक्त संत रहते थे जिनका नाम था पूज्य श्री सेवादास जी महाराज । श्री सेवादास जी महाराज ने अपने जीवन मे किसी भी वस्तु का संग्रह नही किया । एक लंगोटी , कमंडल , माला और श्री शालिग्राम जी इतना ही साथ रखते थे । एक छोटी से कुटिया बना रखी थी जिसमे एक बाद सा सुंदर संदूक रखा हुआ था । संत जी बहुत कम ही कुटिया के भीतर बैठकर भजन करते थे , अपना अधिकतम समय वृक्ष के नीचे भजन मे व्यतीत करते थे । यदि कोई संत आ जाये तो कुटिया के भीतर उनका आसान लागा देते थे । एक समय वहां एक बदमाश व्यक्ति आय और उसकी दृष्टि कुटिया के भीतर रखी उस सुंदर संदुक पर पडी । उसने सोचा कि अवश्य ही महात्मा को कोई खजाना प्राप्त हुआ होगा जिसे यहां छुपा रखा है । महात्मा को धन का क्या काम ?मौका पाते ही इसे चुरा लूंगा । एक दिन बाबाजी कुटिया के पीछे भजन कर रहे थे । अवसर पाकर उस चोर ने कुटिया के भीतर प्रवेश किया और संदुक को तोड़ मरोड़ कर खोला । उस संदुक के भीतर एक और छोटी संदुक रखी थी । चोर ने उस संदुक को भी खोल तब देखा कि उसके भीतर भी एक और छोटी संदुक रखी है । ऐसा करते करते उसे कई संदुक प्राप्त हुई और अंत मे एक छोटी संदुक उसे प्राप्त हुई । उसने वह संदुक खोली और देखकर बडा दुखी हो गया । उसमे केवल मिट्टी रखी थी । अत्यंत दुख में भरकर वह कुटिया के बाहर निकल ही रहा था की उस समय श्री सेवादास जी वहां पर आ गए । श्री सेवादास जी ने चोर से कहा – तुम इतने दुखी क्यो हो ? चोर ने कहा – इनती सुंदर संदुक मे कोई क्या मिट्टी भरकर रखता है ? बड़े अजीब महात्मा हो। श्री सेवादास जी बोले – अत्यंत श्रेष्ठ मुल्यवान वस्तु को संदुक मे ही रखना तो उचित है । चोर बोला – ये मिट्टी कौनसी मूल्यवान वस्तु है ? बाबा बोले – ये कोई साधारण मिट्टी नही है , यह तो पवित्र श्री वृंदावन रज है । यहां की रज के प्रताप से अनेक संतो ने भगवान् श्री कृष्ण को प्राप्त किया है । यह रज प्राप्त करने के लिए देवता भी ललचाते है । यहां की रज को श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त है । श्रीकृष्ण ने तो इस रज को अपनी श्रीमुख मे रखा है । चोर को बाबा की बात कुछ अधिक समझ नही आयी और वह कुटिया से बहार जाने लगा । बाबा ने कहा – सुनो ! इतना कष्ट करके खाली हाथ जा रहे हो , मेहनत का फल भी तो तुम्हे मिलना चाहिए । चोर ने कहा – क्यों हँसी मजाक करते है , आप के पास देने के लिए है भी क्या ? श्री सेवादास जी कहने लगे -मेरे पास तो देने के लिए कुछ है नही परंतु इस ब्रज रज मे सब कुछ प्रदान करने की सामर्थ्य है । चोर बोला – मिट्टी किसीको भला क्या दे सकती है ?



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